सर्कस के कलाकारों का द्वंद आज भी जारी है। सरकारी प्रोत्साहन ना मिलने की टीस इन कलाकारों के मन में सालों से है। सरकारी उपेक्षा की ‘ताप’ सहते सहते सर्कस का मंच बुरी तरह झुलस चुका है और इसमें ‘आग’ लगना भर बाकी रह गया है। आलम यह है कि अब यह प्राचीन कला देश से विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है।
आर्थिक चुनौतियों से मुकाबला ना कर पाने के चलते कई सर्कस बंद हो चुकी है। जो कुछेक बाकी बची हैं, वे जैसे तैसे हालात से लोहा ले रही है। इन दिनों सिरसा शहर में चल रही एशियाड सर्कस देश की प्राचीन कला से लोगों को रूबरू करवा रही है। भले ही मोबाइल इंटरनेट के दौर में अब पहले जैसे सर्कस के कद्रदान नहीं हैं, पर बच्चों में इसके प्रति दीवानगी खूब है। जोकर का चुलबुला अंदाज, कलाकारों के हैरतअंगेज करतब व कलाबाजियां देख बच्चे तो क्या, बड़े भी दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर हो जाते हैं।
सर्कस का संचालन देख रहे शिव बहादुर सिंह चौहान से सर्कस के सफर व चुनौतियों को लेकर विस्तार से बात की। चौहान ने बताया कि 35 साल पहले जब सर्कस शुरू हुई, तब बात ही दूसरी थी। तब सर्कस में शेर, चीता, हाथी, भालू आदि वन्य जीव हुआ करते थे, जिनके करतब देखने लोग उमड़ते थे। वर्ष 2002 में सर्कस में वन्य जीवों पर प्रतिबंध लग गया और इसके बाद मोबाइल इंटरनेट युग शुरू हो गया। यह बदलाव सर्कस की दूनिया पर बिजली बनकर टूटा। लोगों का सर्कस के प्रति रूझान कम होने लगा, जिससे आर्थिक समस्याएं खड़ी हो गई। इसके चलते कई सर्कस बंद हो गई। जबकि कुछेक सर्कस आज भी विपरित हालात के बावजूद अपना सफर जारी रखे हुए है। चौहान आगे बताते हैं कि बेशक अब सर्कस में वन्य जीवों के करतब ना हों, पर दर्शकों के मंनोरजन में कोई कमी नहीं हैं। वन्य जीवों का स्थान अब विदेशी कलाकारों ने ले लिया है।
रशिया व अफ्रीका के मंझे हुए कलाकार अपनी जान जोखिम में डालकर दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान लाने का काम कर रहे हैं। इसके अलावा नेपाल, आसाम व बंगाल के कलाकार अपनी प्रतिभा से दर्शकों को अपनी प्रतिभा से अवगत करवा रहे हैं। शिव बहादुर सिंह चौहान ने बताया कि सर्कस में 40 युवतियों सहित 120 लोगों की टीम देश की इस प्राचीन कला को जिंदा रखे हुए हैं।
देश के 10 राज्यों में अपने कला कौशल का प्रदर्शन कर चुके ये कलाकार सरकार से मदद चाहते हैं। इन्हें सरकारी प्रोत्साहन की बेहद जरूरत है। आखिर में चौहान भरे मन से कहते हैं कि सरकारी उपेक्षा व अनदेखी का दौर यूं ही जारी रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब देश से यह प्राचीन कला पूरी तरह लुप्त हो जाएगी। आने वाली पीढ़ी इस प्राचीन कला को देखने से वंचित रह जाएगी। लोग यही कहेंगे…एक थी सर्कस।
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